Monday, 1 May 2017

#International_Workers_Day

जिसके मेहनत की रोटी तुम खाते हो ,
उसको छूने से इतना क्यों घबराते हो

जो अपने कन्धों पर बोझ तुम्हारे ढ़ोता हैं,
उसके कन्धों पर सर रखने में क्यों शर्माते हो,

ख्वाब मोहब्बत दिल बेचैनी ये सब उसमें भी हैं ,
फिर अपने आप पर इतना क्यों इतराते हो !

Friday, 30 December 2016

कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे

आसमाँ  तले  जो बैठे  हैं  चाँदनी के मुन्तजिर,
आपकी  जुल्फ़ों  में  चाँद  के आसार ढ़ूढ़ते हैं!!

कल तलक जो जीते थे फकीराना सी जिन्दगी,
हर  ओर  आज  वो   ही   घर   द्वार  ढ़ूढ़ते  हैं!!

खुद के साये से भी जो डरते थे शब-ए-श्याह,
आज   आपके   साये   में   संसार   ढ़ूढ़ते   हैं!!

कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,
फिर  हर  सम्त छुपने को क्यों दीवार ढ़ूढ़ते हैं!!

शजर जो  काट देते थे  बीज बोने से पहले ही,
छाँव की खातिर ही क्यों बाग बारम्बार ढ़ूढ़ते हैं!!

Saturday, 26 November 2016

हमीं से हम नहीं हैं गोे तुम्हीं से तुम नहीं होते

हमीं  से  हम  नहीं  हैं गोे  तुम्हीं  से तुम नहीं होते,
समझदारी अब इसी में हैं रवाँ अब हम कहीं होते,

कटेगा  वक्त  कैसे जब  साथ  गर  तुम नहीं होगे,
महज़  ठहरे ही  रहने  से  फासले  कम नहीं होते,

ओढ़  कर  इश्क की चादर वो बैठें हैं अंजुमन में,
तकाज़े  इश्क  करने से  बिस्मिल पैहम नहीं होते,

जमाने भर की नाशादी सही जाती  हैं मुझसे पर,
तेरी   नाराजी   के   गर  वो   आलम  नहीं  होते,

शब-ए-गम की शाम तो कभी  काटे नहीं कटती ,
अगर  तुम  होते मेरे  संग  तो इतने गम नहीं होते,

मुसलसल वक्त जब जब था मुलाकातों का उनसेे,
कभी फिर तुम नहीं होते कभी फिर हम नहीं होते,

Thursday, 6 October 2016

जिन्दगी भर भटका किये राह-ए-उम्मीद में,

जिन्दगी  भर  भटका  किये  राह-ए-उम्मीद  में,
कभी   पहुँच  ही  ना  पाये   दयार-ए-हबीब  में,

शाम  ढ़ल  गयी  और  हम  यूँ  ही  बैठे  रह गये,
वो आये और जा बस गये निगह-ए-अंदलीब में,

क्या  खता  खुदा  की   क्या   उनकी  खता  थी,
जब  लिख  दिये  हो  किसी  ने   ग़म-नसीब  में,

वो  अक्स-ए-रूख  थे  देख  रहे  मेरे   रकीब  में,
हम पूँछते ही रह गये क्या कमीं थी मुझ गरीब में,

वो आके हमसे पूछते क्या हो किसी तकलीफ में,
हम घुट घुट के यूँ ही मर  गये  हिज्र-ए-हबीब  में,

Thursday, 29 September 2016

"आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में भी घबराता हूँ मैं"

आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में भी घबराता हूँ मैं,
अपनों  की  महफिल  में  खड़ा  गैर हो  जाता हूँ मैं,
बिन   तेरे   सारा  जहाँ   नाशाद   सा   लगता  मुझे,
सू-ए-मंजिल से  दफअतन  यूँ ही भटक जाता हूँ मैं,

Saturday, 6 August 2016

'ना जाने क्यों उन्होंनें जिन्दगी ही नाम कर दी हैं'


मैं उनसे  चन्द पल की ही तो मोहलत माँगता था,
ना जानें  क्यों  उन्होंनें  जिन्दगी ही नाम कर दी हैं,

मैं  सोया हूँ  नहीं दिन रात  जबसे देखा हैं उनको,
निगाह-ए-इल्तिफातों  में सुबह से शाम कर दी हैं,

उसी कूचे में रहता  हूँ जिधर से तुम कभी गुजरीं,
हिकायतें  इस कदर फैली मुझे बदनाम कर दी हैं,

बज्म़ यारों की कभी लगती थी जहाँ  कल  तक,
आज उस  चौखट को मयखाने के नाम कर दी हैं,

पैरहन   तक   हैं    तेरे   ही   नाम   के  अब  तो,
जियाद़ा  कुछ  नहीं बदला बात ये आम कर दी हैं,

कभी  शायर  नहीं था  मैं कभी नज्में नहीं लिखी,
दर्द दिल में ज़रा उठा आवाज-ए-अवाम कर दी हैं,