Saturday 6 August 2016

'ना जाने क्यों उन्होंनें जिन्दगी ही नाम कर दी हैं'


मैं उनसे  चन्द पल की ही तो मोहलत माँगता था,
ना जानें  क्यों  उन्होंनें  जिन्दगी ही नाम कर दी हैं,

मैं  सोया हूँ  नहीं दिन रात  जबसे देखा हैं उनको,
निगाह-ए-इल्तिफातों  में सुबह से शाम कर दी हैं,

उसी कूचे में रहता  हूँ जिधर से तुम कभी गुजरीं,
हिकायतें  इस कदर फैली मुझे बदनाम कर दी हैं,

बज्म़ यारों की कभी लगती थी जहाँ  कल  तक,
आज उस  चौखट को मयखाने के नाम कर दी हैं,

पैरहन   तक   हैं    तेरे   ही   नाम   के  अब  तो,
जियाद़ा  कुछ  नहीं बदला बात ये आम कर दी हैं,

कभी  शायर  नहीं था  मैं कभी नज्में नहीं लिखी,
दर्द दिल में ज़रा उठा आवाज-ए-अवाम कर दी हैं,
                                                   

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