Friday 30 December 2016

कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे

आसमाँ  तले  जो बैठे  हैं  चाँदनी के मुन्तजिर,
आपकी  जुल्फ़ों  में  चाँद  के आसार ढ़ूढ़ते हैं!!

कल तलक जो जीते थे फकीराना सी जिन्दगी,
हर  ओर  आज  वो   ही   घर   द्वार  ढ़ूढ़ते  हैं!!

खुद के साये से भी जो डरते थे शब-ए-श्याह,
आज   आपके   साये   में   संसार   ढ़ूढ़ते   हैं!!

कहते तो खुद को आशिक-ए-पर्वरदिगार थे,
फिर  हर  सम्त छुपने को क्यों दीवार ढ़ूढ़ते हैं!!

शजर जो  काट देते थे  बीज बोने से पहले ही,
छाँव की खातिर ही क्यों बाग बारम्बार ढ़ूढ़ते हैं!!

Saturday 26 November 2016

हमीं से हम नहीं हैं गोे तुम्हीं से तुम नहीं होते

हमीं  से  हम  नहीं  हैं गोे  तुम्हीं  से तुम नहीं होते,
समझदारी अब इसी में हैं रवाँ अब हम कहीं होते,

कटेगा  वक्त  कैसे जब  साथ  गर  तुम नहीं होगे,
महज़  ठहरे ही  रहने  से  फासले  कम नहीं होते,

ओढ़  कर  इश्क की चादर वो बैठें हैं अंजुमन में,
तकाज़े  इश्क  करने से  बिस्मिल पैहम नहीं होते,

जमाने भर की नाशादी सही जाती  हैं मुझसे पर,
तेरी   नाराजी   के   गर  वो   आलम  नहीं  होते,

शब-ए-गम की शाम तो कभी  काटे नहीं कटती ,
अगर  तुम  होते मेरे  संग  तो इतने गम नहीं होते,

मुसलसल वक्त जब जब था मुलाकातों का उनसेे,
कभी फिर तुम नहीं होते कभी फिर हम नहीं होते,

Thursday 6 October 2016

जिन्दगी भर भटका किये राह-ए-उम्मीद में,

जिन्दगी  भर  भटका  किये  राह-ए-उम्मीद  में,
कभी   पहुँच  ही  ना  पाये   दयार-ए-हबीब  में,

शाम  ढ़ल  गयी  और  हम  यूँ  ही  बैठे  रह गये,
वो आये और जा बस गये निगह-ए-अंदलीब में,

क्या  खता  खुदा  की   क्या   उनकी  खता  थी,
जब  लिख  दिये  हो  किसी  ने   ग़म-नसीब  में,

वो  अक्स-ए-रूख  थे  देख  रहे  मेरे   रकीब  में,
हम पूँछते ही रह गये क्या कमीं थी मुझ गरीब में,

वो आके हमसे पूछते क्या हो किसी तकलीफ में,
हम घुट घुट के यूँ ही मर  गये  हिज्र-ए-हबीब  में,

Thursday 29 September 2016

"आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में भी घबराता हूँ मैं"

आ कि तुझ बिन बज्म-ए-यारों में भी घबराता हूँ मैं,
अपनों  की  महफिल  में  खड़ा  गैर हो  जाता हूँ मैं,
बिन   तेरे   सारा  जहाँ   नाशाद   सा   लगता  मुझे,
सू-ए-मंजिल से  दफअतन  यूँ ही भटक जाता हूँ मैं,

Saturday 6 August 2016

'ना जाने क्यों उन्होंनें जिन्दगी ही नाम कर दी हैं'


मैं उनसे  चन्द पल की ही तो मोहलत माँगता था,
ना जानें  क्यों  उन्होंनें  जिन्दगी ही नाम कर दी हैं,

मैं  सोया हूँ  नहीं दिन रात  जबसे देखा हैं उनको,
निगाह-ए-इल्तिफातों  में सुबह से शाम कर दी हैं,

उसी कूचे में रहता  हूँ जिधर से तुम कभी गुजरीं,
हिकायतें  इस कदर फैली मुझे बदनाम कर दी हैं,

बज्म़ यारों की कभी लगती थी जहाँ  कल  तक,
आज उस  चौखट को मयखाने के नाम कर दी हैं,

पैरहन   तक   हैं    तेरे   ही   नाम   के  अब  तो,
जियाद़ा  कुछ  नहीं बदला बात ये आम कर दी हैं,

कभी  शायर  नहीं था  मैं कभी नज्में नहीं लिखी,
दर्द दिल में ज़रा उठा आवाज-ए-अवाम कर दी हैं,
                                                   

Monday 11 July 2016

"आँखें"

मन  की बात  खुदा ही  जानें  आँखें  तो दिल  की सुनती हैं,
जिनसे पल भर की दूरी रास नहीं उनसे ही निगाहें लड़ती हैं,

दिल भँवर बीच यूँ  फँस  जाता  साँसें भी मुअस्सर ना होतीं,
आँखो आँखों के   खेल में  बस  हर रोज सलाखें मिलती हैं,

बज्म़-ए-गैर में  जब जब दिल-आवेज़  नज़र कोई आता हैं,
बयान-ए-हूर  में  उनके  येें  आँखें   ही   कसीदें   पढ़ती  हैं,

रंज-ए-गम  के  अय्याम   यूँ  ही  हँसते  हँसते कट  जाते हैं,
बिस्मिल की गफ़लत आँखें जब महफिल में नगमें बुनती हैं,

खाना-ए-गुल-ए-ना-शाद में गर  कुछ भी  उधारी रह जाता,
इक  तार-ए-नज़र  भर  से  ही  ये  आँखें  तक़ाजे करती हैं,

Saturday 9 July 2016

ये प्यार हटा दो तुम दिल से कहीं धोखा ये दे जाये ना

ये प्यार हटा दो  तुम  दिल  से  कहीं   धोखा  ये  दे जाये ना,
कसमों वादों और बातों  में कहीं  रात   गुज़र  ये  जाये ना,

सच बोलूँ तो है प्यार बहुत कहीं आँखों से छलक ये जाये ना,
दिल से दिल की इन  बातों में  कहीं  दिल ही टूट ये  जाये ना,

बड़ी देर से  मैं भी  मुन्तजिर  हूँ बड़ी  देर  लगा  दी आनें में,
गर  इतनी  देर  लगाओगे  तो  जान   निकल   ये  जाये  ना,

इस रंग  भरी   दुनिया   में   तुम   बेरंग   नज़ारे   ना   देखो,
इन आँखों को तो तुम  ढ़क लो कहीं घायल ये कर जाये ना,

ये अदा है ज़हर है या रूप नया इस बात को ज़रा बता जाओ
यूँ  होठ दबाओं ना दाँत तले कहीं जंग अभी  छिड़ जाये ना,

पसे-मर्ग ना पढ़ो  कसीदा  तुम ये दोज़ख  में  हमें  सतायेंगे,
पर्दा कर लो  तुम  चेहरे  पर  कहीं चाँद भी  शर्मा  जाये ना,

गैरों   से  नहीं  हैं पर्दा  गर   तो  हम  से  ही ये शर्माना  क्यों,
यूँ छुप छुप कर ना देखो यार हमें कहीं प्यार हमें हो जाये ना

उँगली  थामों या  हाथ पकड़ दरिया-ए-इश्क तुम पार करो,
बर्षों से  मुसाफिर  भटक  रहा  कहीं  राह  भूल ये जाये ना,


Saturday 2 July 2016

"ना तो इन्कार करते हैं ना ही इकरार करते हैं"

ना  तो  इन्कार  करते हैं ना ही  इकरार करते हैं,
मेरी  हर अताओं  को  सरज़द स्वीकार करते हैं,

हया की तीरगी को वो नज़र से  खा़क  करते हैं,
भरी महफिल में भी मुझसे निगाहें चार करते हैं,

मेरी  हर  अजाँओं  को निगाह-ए-पाक करते हैं,
मेरे हर अल़म को  भी  जलाकर  ऱाख  करते हैं,

अहद-ए-हवादिश में भी तबस्सुम-जा़र करते हैं,
मेरी  हर सदाओं  को  सुपुर्द-ए-ख़ाक  करते  हैं,

कैद-खानें   में   ही   सही    मेरे   तिमसाल   से,
वो       गुफ़्तगू      दो      चार       करते      हैं,

Friday 27 May 2016

"मजबूर हूँ बन्द आँखों से कुछ भी दिखायी नहीं देता"

कहो  कोई  तो  कि  आज  फिर  से  शाम  हो जायें,
मजबूर हूँ बन्द आँखों से कुछ भी दिखायी नहीं देता,

मैं    सन्नाटे      में    क्यों     कर      बोलता    रहता,
मेरे   अल्फ़ाजों  को  भी  क्या कोई गवाही नहीं देता,

कब्ज़ा   हो   गया   लगता  इबादतगाह   पर   फिर से,
तभी   हर   फरियाद    पर    कोई    सलामी नहीं देता,

अल्फाजों   सा    बरसोंगें    या   अब्रों   सा  थमोगें तुम,
छतरी ले ही लेता हूँ कि मेरी जान का कोई दिखायी नहीं देता,

रफ़्ता      रफ़्ता     चलो      कि     शहर      अन्जान हैं ,
कौन शागिर्द है कौन जाबिर यहाँ मिलते ही हर कोई दुहाई नहीं देता,

चश्म-ए-तर     हैं       सभी      अंजुमन      में     यहाँ ,
ज़रा गौर से देखो सब यूँ ही हँसी चेहरों से तो जताई नहीं  देता,

Tuesday 24 May 2016

A Tribute to दाग़ देहलवी

वो   भी   क्या    का   कमाल   का   इंसा   रहा  होगा,
जिसने  कुछ  ना  करने  को  भी  कमाल  लिख  दिया,
आशिकों के नाम ही अपना कलम-ए-जहाँ  लिख दिया,
जिसने हिज्र की शाम को भी ईद का सलाम लिख  दिया,
जो निभाते नहीं थे मोहब्बत उन्हें भी प्यार का पैगाम लिख दिया,

Monday 16 May 2016

"मौसम और वो"

काली घटायें हैं बादल में ,
                                  धीमी हवायें हैं सागर में ,
भीनी सुगन्ध है माटी की ,
                                  करती आकर्षित घाटी को,
तुम कहाँ छुपे हो इस पल में ,
                                जब पुरानी यादें हैं आँचल में
अब काली घटायें भी नहीं रहीं ,
                               सागर भी उठ के सिमट गया,
जाने वाले सब चले गये ,
                               पर याद तेरी क्यों जाती नहीं,
हवायें थी घटायें थी ,
                              थी तेरे न होने की तन्हाई भी ,
आवाम भी थी आवाज भी थी ,
                                 थी हवाओं की पुरवाई भी ,
कुछ बेगाने थे कुछ अपने थे ,
                            थे उनमें सिमटें कुछ सपने भी ,

मन की सुन्दरता भी थी ,
                              तन में व्याकुलता भी थी ,
मन व्याकुल था तुझसे मिलने को ,
                           तेरे ख्वाबों में मर मिटने को ,
तेरे दीदार का साया था मुझपे ,
                               संसार समाया था तुझमें ,
जग को पाने की रार नहीं ,
                                     तेरे जाने से हार हुई ,
अब इस पल में तुम कहाँ गयें ,
                           अब अन्तकाल में कहाँ गये ,
तुमको खोजों मैं इधर उधर ,
                         तुम मिलते मुझको शहर शहर ,
             
                                    - Ushesh
                         

Sunday 8 May 2016

"आखिर माँ हैं वो मेरी"


         आखिर माँ है वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं......
मैं बोलूँ या ना बोलूँ कुछ वो सब कुछ जान जातीं हैं,
मेरी खामोशी से ही  मुझे वो भाँप लेती हैं,
मेरी बातों से ही मेरी नज़ाकत जान लेती हैं,
भरे दरिया में मेरे अश्को को वो पहचान लेती हैं,
         आखिर माँ है वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं......
मेरे हर दर्द को वो दूर से महसूस करती हैं,
मेरी हर हार को भी वो मेरी ही जीत कहती हैं,
मेरे सपनों की महफिल का भी वो सम्मान करती हैं,
मेरे आँखों की पलकों का भी वो ध्यान रखती हैं,
          आखिर माँ है  वो मेरी मुझे पहचान जातीं हैं......
                       
                           - Ushesh Tripathi

Saturday 7 May 2016

ताबीर

भरे महफिल में मेरे इश्क की वो इस कदर ताबीर करता हैं,
कि   अब  तो  हर  गली  में  सब  मुझे  ही  पीर  कहता  हैं,

Tuesday 3 May 2016

"लगता है भूल गये हो"

यूँ    गयें    हो    दूर   हमसे   जैसे   कुछ   था   ही   नहीं,
लगता  है   पुरानी  सोहबतों  को  भी  तुम  भूल  गये  हो,

इतना    भी    आसान    नहीं   भूला   देना   किसी   को,
जुर्म   मेरा   है   या    फिर   मगरूर   आप   हो   गये हो,

हर   सावन   कुछ   यादें   ताजा   हो   ही   जाती   होंगीं,
यकीन  नहीं  होता   की   उन्हें   भी    तुम  भूल  गये  हो,

सिलवटें  तो   होंगी  ही   जहन    में    यादों   की   कुछ,
लगता है उन  पर  इस्त्री  करने  में  मशगूल  हो  गये  हो,

कशूर     मेरा      होगा     बे-शक     मानता     हूँ      मैं,
फरमान मौत का तुम यादों के  लिये  क्यों  छोड़  गये  हो,

मेरी  तकदीर  में  ही  नहीं  हो   तुम   'हुज़ूर'  आज  कल,
या फिर अपनेपन की फिकर  में  ही  फकीर  हो  गये  हो,

हर   दर्द   की   दवा    मरहम   ही    नहीं    होती   'हुज़ूर',
लगता   है   इतनी    सी    बात    भी   तुम  भूल  गये  हो,

मेरी  पलकों   से   ही   कोई   खास   रंजिश   है  तुम्हारी,
या   हर   एक   की   नजरों   से   भी   तुम   दूर  गये  हो,

गिले सिकवे तो हो  ही  जाते  हैं  मोहब्बत  में  हर  कहीं,
लगता  है  माँफी  की   कदर   भी   तुम  भूल   गये   हो,

हुज़ूर ! कोई सजा नहीं होती है गमों को बताने  से  यहाँ,
फिर भी उन्हें छुपानें में इतना  क्यों  मशगूल  हो  गये हो,

यूँ   भागते   हो    फिरते   क्यों    दुनियाँ  से  आज  कल,
लगता है तुम भी इश्क के चादर तले  रंगीन  हो  गये  हो,

'हुज़ूर' जाते   वख्त  भी   तुम  मेरे  पास  ही   लगता  है,
नायाब     चीज़    अपनी     कोई     भूल      गये      हो,

जिक्र   तो   होता   ही   होगा   हर   निशा  में  हर  वख्त़,
उसकी फिक्र में  ही  लगता  है  यूँ   गमगीन  हो  गये  हो,

चिरागों को जलाते ही नहीं हों रौशनी के डर से आज भी,
या   फिर   अब  उनकी   रौशनी  में  ही  चूर  हो  गये  हो ,

अब कुछ अपनी कुछ  मेरी मानों  मेरी एक फरियाद सुनो,
कुछ  प्रयास करता हूँ  मैं  भी तुम भी  तो  कुछ याद  करो,

"उस दिन"


        क्या मेरी आँखों से ही तिरी कोई रंजिश थी उस दिन,
        या  तिरे  दीदार  की  हर  खबर  झूठी  थी  उस  दिन,

        हर  गलीं  हर  चौक  पर  तो  दिल  मेरा  था झाँकता,
        फिर  किन   गुज़रगाहों  से  तू  गुजरी  थी  उस  दिन,

        फूल सारे ताकते थे इक नन्हीं  कली आयेंगी उस दिन,
        भौरों  के भ्रमण  में भी इक नयीं  मस्ती थी  उस  दिन,

       रूत ए पतझड़  में  भी  तो  बहारों  सी बातें थी उस दिन,
       दिल के बागानों में भी तो नयीं कोमल शाखें थी उस दिन,

        सब  थे   रूसवा   पर   मन   प्रफुल्लित   हो   रहा   था,
        जैसे जश्न  लेकर  आ  गई हो ईद और दिवाली उस दिन,

Monday 2 May 2016

"हर बात ही हो लफ़्जों से बयाँ जरूरी तो नहीं"

हर बात ही हो लफ्जों से बयाँ ये जरूरी तो नहीं 'हुज़ूर',
दिल ए नादाँ की कुछ सदायें तुम भी तो  सुनना सीखो,

हर   नज्म़  में   करता  हूँ  मैं   बस   तेरी   ही   तारीफ,
मेरी    नज्मों    को    तुम    भी    तो    पढ़ना   सीखो,

लगता है  बहुत  कर  ली  है अदावत से मोहब्बत तुमने,
कभी जंग-ए-मोहब्बत  में  तुम  भी  तो  उतरना  सीखो,

महफिलों में मिलते ही  नज़रे  झुक  सी  जाती  हैं  तेरी,
कभी नज़रों की महफिलों में  तुम भी तो चढ़ना  सीखो,

राज-दाँ है ज़माना सदियों से तिरी औ मिरी मोहब्बत का ,
'ज़नाब' इस   राज  को  तुम  भी   तो  अपनाना   सीखो ,

इश्क  के  मंजर  में  बंजर  हो  गये  कितने  चाहने  वाले,
इसी बहाने ही सही तुम मुड़ कर मेरा भी अफ़साना देखो,

खुश-चश्मों   को  तो बे-रंग  भी  सतरंग  नज़र  आता है,
कभी तुम भी तो  मेरी  बे-ज़ार  आँखों   का नजा़रा देखो,

मुझे तो  तलब सी  हो  गयी हैं  तुझे  ख्वाबों में  पाने  की ,
मेरे ख्वाबों को भी तो अपनी पलकों  पर  सजाना सीखो,

हम  तो  मोहब्बत में  तेरी ज़फाओं तक को   निभाते  रहे,
मोहब्बत  में   अकीदत  को  तुम  भी  तो  निभाना सीखो,

                                           - उषेश त्रिपाठी

"शामिल तो ना था"

रुसवा  हो  गयीं  हो तुम  या फिर  समझ मैं   नहीं पाया ,
यूँ  नखरें  दिखाना  तिरी  अदाओं  में  तो शामिल ना था,

तड़प  गर  मैं  रहा  हूँ तो  खुश  तो  तुम  भी  नहीं होगे,
यूँ  रूठ  कर  जाना  तिरी  अदाओं में तो शामिल ना था,

बहुत   हुआ   ये  बचपना  आ  अब   मिल  ही  लेते  हैं,
ये जाबिराना हरकतें तिरी उल्फत में तो  शामिल ना था,

तिरी  मय  का  सुरूर  तो  अभी  चढ़ा  भी ना था ढ़ग से,
गुज़रगाहों में यूँ तन्हा छोड़ के जाना मुनासिब तो ना  था,

तुम्ही   थे  या   तेरा   कोई    अक्स   मिला   था   मुझसे,
भरी महफिल में यूँ मुह मोड़ के जाना मुनासिब तो ना था,

तिरी  और  मिरी  उन  मुसलसल  यादों  का  क्या  होगा,
दरवाजें पर दस्तक दे कर लौट जाना मुनासिब तो ना था,

तकल्लुफ  में  अगर  हो   तुम   तो   तड़पेगा   जहाँ   सारा,
यूँ बातों बातों में रूठ जाना तेरी आदत में तो शामिल ना था,

Sunday 1 May 2016

"तन्हाइयाँ"

मेरी  तन्हाइयों  का  जिम्मेदार  किसे  मानूँ  मैं  'हूज़ूर'
तेरे जाने के बाद इन हवाओं नें भी तो रुख बदला था,

"कुछ नया तो नहीं"

अहवाल ए मोहब्बत  की समझ  हम में भी हैं तनिक सी ,
इश्क कर बेवफाई को बदनाम करना कुछ नया तो नहीं ,

यूँ  मौत  के  वक़्त  भी  क्या  तगाफ़ुल  कर  के  जाओगे,
हर  रात  का ही हो अब अंजाम जुदाई कुछ नया तो नहीं ,

क्यों गैर मुंसिफों के हवाले छोड़ गये हो फासलों के फैसले,
दुनिया वाले करेंगे महरूम तिरी यादों से कुछ नया तो नहीं ,

तेरी जानिब चले हो इश्क के  सागिर्द  पहली दफा़ तो नहीं,
तेरे हाथों ही हो  मेरे जज्बातों का कत्ल कुछ नया तो नहीं,

मैं   गिनता   रहूँ   दिन  तुझसे  जुदाई  के  सोहबत  में  तेरी,
और   तू  आये  ना  इन्तजार  के  बाद  कुछ  नया  तो  नहीं,

"फिरासत"

ये तो फिरास़त है मेरी जो विरासत ए इश्क कर दी है तेरे नाम,
वरना  जाबिरों  को  काबिल - ए - वफा  समझता  ही कौन है,

"गुमनाम समंदर"

होठों   से   बयाँ   होता  है  आँखों    का   दर्द    सुनहरा,
जब  अश्क  रूठ  जाते  हैं   किसी  बेगाने की  यादों  में,

हर  दर्द  जवाँ  हो  जाता   बीते   हुये    हर  उस  पल सेें,
जिनकी  यादों की  कहानियाँ लिख गयी हैं वो आँचल से,

हर   बात  बयाँ   हो   जाती   आने   वाले   उस  कल  में,
खामोशी   का   चादर  ओढ़े  तन्हाई   के   हर  मन्जर  में,

बेनाम  सा चेहरा  याद  कभी जो आँखों  को आ  जाता है,
पलकों  से बहकर  आँसू  अधरों   से   जा  मिल  जाता है,

हर ख्वाब उसी से शुरू हुआ हर ख्वाब उसी पर  थमता है,
ख्वाबों का भी वो ख्वाब बना ख्वाबों में नहीं वो दिखता है,

भीगी  पलकों  पर  ख्वाब  समेंटे  रात  यूँ ही कट जाती हैं,
जब  इतंजार  की  घड़ियाँ  भी  इकरार  नहीं  ला  पाती हैं,

वो  नाम  रहे   गुमनाम   रहे  अधरों   से  भी  अन्जान रहे,
बस  दिल  के  हर इक कोने में उस की अपनी पहचान रहे,

इस  गुमनामी   के  समंदर  में  गुमनाम बात  वो  याद  रही,
याद  रहीं  वो  रात  वहीं  जिसमें  वो  ख्वाबों  में साथ  रही,

हर  बार  उसी   का  दोष  नहीं  हर  बार मैं भी निर्दोष नहीं,
हर बार इश्क की महफिल में उसके फरमानों का शोर नहीं,

हर   याद    संजोये    रखी   है  हर  साँस  संजोये  रखी  है,
तेरे      वापस    आने    की    हर  आश  संजोये   रखी   है,
                    - Ushesh Tripathi